Saturday, November 29, 2008

मुंबई का दर्द, जिसे किसी ने नहीं सुना !



लहरों का, समंदर का, हवाओं का शहर है
सूरज का, सवेरों का, घटाओं का शहर है
बिगड़ी हुई तक़दीर संवरती है यहां पर
मुबई है, ये माओं की दुआओं का शहर है

मगर दुआओं का ये शहर आज आफ़सोस में है...इसकी आंखों में कभी न सूखने वाले आंसू साफ़ दिख रहे हैं और इसके दिल में कभी न भरने वाले ज़ख्म भी घर कर चुके हैं...रहते रहते ये शहर न जाने क्या सोचता है...और उदास हो जाता है...इसे शायद बमों की वो आतशबाज़ी याद आ जाती है जिसके बाद इस शहर ने दीवाली नहीं मनाई या फिर ट्रेन में मौत का सफ़र करने वाले उन बेगुनाहों की याद आ जाती है जो कभी न खत्म होने वाले सफ़र पे चले गए...एक ज़ख्म भर नहीं पाता के दूसरे ज़ख्म का घाव लेकर ये शहर फरियाद करता है...अपने सीने पे लाशों का बोझ उठा उठा कर ये मुंबई शहर इस तरह सिसक रहा है
मानों इसके अरमानों को किसी ने रौंद दिया हो...सुनते हैं शहरों का भी इंसानों के साथ एक अजीब रिश्ता होता है, आपने दामन में औलाद की तरह समेटे लोगों को खुश होता देख ये शहर भी खुश हो जाते हैं, और इनके ग़मों में अफ़सोस ज़ाहिर करके ये अपने ग़म का इज़हार करते हैं...इसी दर्द की खलिश मुंबई को तार तार किए जा रही है, अपने कलेजे पर सैकड़ों लाशें उठाकर ये शहर दहाड़ें मार मार कर रो रहा है... ये शहर कई रातों का जागा है... अपने दयार को लुटते हुए इसने अपनी आंखों से देखा है.... ये शहर बड़ा उदास है इसे सहारा दे दो....आपको अगर इसकी आवाज़ नहीं सुनाई देती तो ज़रा इन नज़ारों को देखिए...अब शायद इस शहर के दर्द को आप बखूबी समझ जाएं... ये रो रहा है उनके मारे जाने पर जो इसके घर में मेहमान बनकर आए थे..और लाश बनकर गए... ये रो रहा है उस इमारत के खस्ता हाल हो जाने पर जो इसके माज़ी की निशानी है... और ये रो रहा है तो उस राजनीति पर जो इसका सुकून लुट जाने के एवज़ इसकी हमदर्दी में की जाएंगी...!!!
इसे वो कांधा दे दो जिसपर अपना सर रख के ये रो सके...इसे वो दामन दे दो जो इसके आंसूओं को पोंछ सके
ये शहर बड़ा उदास है... इसे सहारा दे दो...!!!
मसरूर अब्बास

Friday, November 14, 2008

'मैं' और मेरा वजूद अक्सर यही बातें करते हैं......'मेरी नई नज़्म'


अदना से एक वजूद में सिमटा हुआ सा मैं
हर लम्हा अपने आप में उलझा हुआ सा मैं

पलकें झपकते ही मेरा बचपन गुज़र गया
बचपन की अब तलाश में फिरता हुआ सा मैं

छोटा सा बैग और किताबें बड़ी बड़ी
पगडंडियों की राह भटकता हुआ सा मैं.


झूठे कसीदे लिक्खे गए मेरी शान में
ज़ख्मी गुलाम की तरह सहमा हुआ सा मैं

हालात ने किया है खड़ा उस मुक़ाम पर
बालों से पतली राह पे संभला हुआ सा मैं

लड़ने की चाह तेज़ तो जीने की चाह कम
ऐसी दोराहे मोंड पे ठहरा हुआ सा मैं

चाहा था मैने एक नज़ाकत की धूप को
अब तक उसी के ख़्वाब में डूबा हुआ सा मैं

ज़ुल्फें तो उस बला की कभी की सुलझ गईं
अबतक हूं उसकी ज़ुल्फ़ में उलझा हुआ सा मैं

आवाज़ में शिकन है निगाहों में सिलवटे
तन्हां अंधेरी रात में भटका हुआ सा मैं

आंखें जो बंद कीं तो खिला फूल था मगर
आंखें खुलीं तो शाख़ से टूटा हुआ सा मैं

मेरी तमाम उम्र अगर इक पंतग है
धागे की तरह बीच से टूटा हुआ सा मैं

तुम हो की एक चांद हो रहते हो अर्श पर
जुगनु अंधेरी रात का जलता हुआ सा मैं

मसरूर अब्बास

Wednesday, November 12, 2008

‘दक़ियानूसी राज’





शहर में राज का चर्चा दिखाई देता है
हर एक शक्स तड़पता दिखाई देता है
ज़माना चांद पे जाने की कर रहा है फ़िराक़
इसे तो सिर्फ़ मराठा दिखाई देता है
किसी को भी यहां ‘भईया’ से कोई बैर नहीं
इसी की आंख में कांटा दिखाई देता है
ज़माना जान चुका है परख चुका है इसे
ये शक्स खून का प्यासा दिखाई देता है
जहां में जब भी दरिंदों दी बात होती है
ये सैकड़ों में अकेला दिखाई देता है
लिबास इसका भले ही सफ़ेद हो लेकिन
ये शक्स सोच का काला दिखाई देता है
ये मुंबई की फ़िज़ाओं में ख़ौफ़ भर भर कर
बुराइयों का ओसामा दिखाई देता है
ये राजनीति का चक्कर है जान लो ‘भईया’
ये शक्स बुश का नवासा दिखाई देता है
ये राज कौन है क्यों इसकी बात करते हो
ये ‘राज’नीति का प्यासा दिखाई देता ही
भरेगा कब भला इसकी शरारतों का घड़ा
के इसका वक्त तो पूरा दिखाई देता है
मसरूर अब्बास