Friday, November 14, 2008

'मैं' और मेरा वजूद अक्सर यही बातें करते हैं......'मेरी नई नज़्म'


अदना से एक वजूद में सिमटा हुआ सा मैं
हर लम्हा अपने आप में उलझा हुआ सा मैं

पलकें झपकते ही मेरा बचपन गुज़र गया
बचपन की अब तलाश में फिरता हुआ सा मैं

छोटा सा बैग और किताबें बड़ी बड़ी
पगडंडियों की राह भटकता हुआ सा मैं.


झूठे कसीदे लिक्खे गए मेरी शान में
ज़ख्मी गुलाम की तरह सहमा हुआ सा मैं

हालात ने किया है खड़ा उस मुक़ाम पर
बालों से पतली राह पे संभला हुआ सा मैं

लड़ने की चाह तेज़ तो जीने की चाह कम
ऐसी दोराहे मोंड पे ठहरा हुआ सा मैं

चाहा था मैने एक नज़ाकत की धूप को
अब तक उसी के ख़्वाब में डूबा हुआ सा मैं

ज़ुल्फें तो उस बला की कभी की सुलझ गईं
अबतक हूं उसकी ज़ुल्फ़ में उलझा हुआ सा मैं

आवाज़ में शिकन है निगाहों में सिलवटे
तन्हां अंधेरी रात में भटका हुआ सा मैं

आंखें जो बंद कीं तो खिला फूल था मगर
आंखें खुलीं तो शाख़ से टूटा हुआ सा मैं

मेरी तमाम उम्र अगर इक पंतग है
धागे की तरह बीच से टूटा हुआ सा मैं

तुम हो की एक चांद हो रहते हो अर्श पर
जुगनु अंधेरी रात का जलता हुआ सा मैं

मसरूर अब्बास

2 comments:

Unknown said...

masroor apne kitne ache nazm likhe hai. Kitne gehrae hai aapke nazm main bahut khub likha hai.

Unknown said...

Inner deep emotional thoughts, expressed in beautiful ornamented Nazm..............!

You have very good skills of analysis & presentation.

Keep it up!