Friday, December 5, 2008

एक रोज़ का एहसास जो कुछ देख के हुआ....


न जाने क्यों मेरी खुशियां उदास बैठी हैं
कहूं मैं कैसे उन्हें कितना बेक़रार हूं मैं

वो अपनी उंगलियां रक्खे हुए हैं गालों पर
मुझे ये डर है कि उनका गुनाहगार हूं मैं

मैं छुपके देखता रहता हूं हरकतें उनकी
हर एक शोख़ अदाओं का राज़दार हूं मैं

वो लंबी ज़ुल्फ, बड़ी आंख, खुशनुमा चेहरा
इन्ही की चाह में बेहका सा इंतज़ार हूं में

मैं किस तरह से कहूं उनसे हाल-ए-दिल अपना
मैं किस तरह से कहूं कितना अश्कबार हूं मैं

खुशी की छांव में महंका हुआ सा फूल है वो
ग़मों से उजड़े गुलिस्तां की एक बाहर हूं में

वो मेरा इश्क है रहता है मेरी सासों में
पर उसके दिल में धड़कता हुआ सा प्यार हूं मैं

मसरुर अब्बास

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